भोजन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
भोजन करना जीवन का सबसे आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कार्य है। कोई जीव चाहे कुछ भी नहीं करे भोजन करना ही पड़ता है। कोई भी संसारी प्राणी (भगवान् को छोड़कर) भोजन के बिना जीवित नहीं रह सकता है। लेकिन भोजन में विवेक का अभाव हो जाने के कारण आज हमारे देश में होटल और हाॅस्पिटल बढ़ते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि व्यक्ति जीने के लिए नहीं,मात्र खाने के लिए ही जीने लगा है। इसी कारण हमें आज यह भी विवेक नहीं है कि हमें क्या खाना चाहिए, कहां कितना कब और कैसा खाना चाहिए। इसलिए हमारे भोजन का व्यय तो बढ़ गया है परन्तु भोजन से होने वाली शरीर की हष्ट-पुष्टता कम होती जा रही है, क्योंकि हम खाते तो बहुत सारा है पर शरीर के लिए आवश्यक विटामिन्स, कैलोरी, प्रोटीन्स वाला भोजन नहीं करते हैं अथवा विटामिन्स आदि से युक्त भोजन करते भी हैं तो वह पेट में पड़े हुए यद्वा-तद्वा भोजन के कारण स्थित अनावश्यक पदार्थों से नष्ट हो जाता है।
हम भोजन करने के पहले एक बार भी थाली को नहीं देखते हैं अथवा हमें थाली में परोसे गए भोजन को देखने का समय या विवेक ही नहीं है। हमारे मन में कभी यह विचार ही उत्पन्न नहीं होता है कि भोजन करने के पहले हम कम से कम एक बार यह तो देख लें कि कहीं इसमें छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े जीव-जंतु तो नहीं है।
कई बार हम चिप्स आदि बनाकर डिब्बे में भरकर रख लेते हैं और और जब खाने की इच्छा होती है तब तब डिब्बे का ढक्कन खोलकर बिना देखे ही चिप्स आदि लेकर खा लेते हैं, यह सोचकर के कि बंद डिब्बे में रखें चिप्स में कैसे चींटियां आदि आ सकती है, लेकिन हमेशा हमे बंद डिब्बे में से अगर कुछ निकालकर खाना है तो भी उस चीज को अच्छे से शोधन करके ही खाना चाहिए क्योंकि बंद डिब्बे में भी चींटियां आदि आ जाना कोई आश्चर्य करने की बात नहीं है, क्योंकि चींटियां का सम्मूर्छन जन्म हैं अर्थात् बिना माता-पिता के जहां कहीं अनुकूल वातावरण मिलने पर होने वाला जन्म होता है। इसलिए उस डिब्बे में भी वे उत्पन्न हो सकती है, इसी प्रकार अन्य भी विकलत्रय जीव उत्पन्न हो सकते हैं अतः अच्छी तरह से शोधन करके रखी हुई पैक डिब्बे की चीज भी पुनः देखकर खाना चाहिए।
कई लोग बेर, मटर की फली,हरे चने आदि सीधे मुंह से ही खाते हैं। इनमें से बेर को मुंह से तोड़कर आधा चबा जाते हैं और आधे को आंखों से देखते हैं। जब बेर में लट आदि दिखते हैं तब थू-थू करते हैं तब तक तो लट आदि दांतों से चबाकर आधी पेट में पहुंच चुकी होती है। इसी प्रकार की घटनाएं बिना विवेक से खाने से खाने वालों के साथ हर दिन घटती रहती है। हमारे साथ भी घट सकती है। इसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। बिमार होने पर आर्थिक स्थिति पर और असभ्यता होने से व्यावहारिक स्थिति पर भी पड़ता है। इन सबसे बहुत प्रयोजन नहीं मुख्य प्रयोजन अहिंसा से हैं। हिंसा से जो पाप लगेगा वह इस भव तथा परभव दोनों में दुःख देने वाला है। थोड़ा सा विवेक रखकर यदि हम हिंसा से बच गये तो शारीरिक, मानसिक आदि हानियों से तो सहज से बच सकते हैं।
धृतराष्ट्र अंधे हुए
धृतराष्ट्र पूर्व भव में एक राजा थे। उनमें राजा के योग्य सभी गुण थे लेकिन एक बहुत बड़ा अवगुण भी उनमें पल रहा था जिसने यद्यपि राजा को प्रजा की दृष्टि से नहीं गिराया परन्तु उसके भविष्य को काला अवश्य कर दिया था। वह अवगुण था उनकी “जिह्वा की लोलुपता” । वह भोजन करते समय यह नहीं सोच पाते थे कि मैं क्या खा रहा हूं और मुझे क्या खाना चाहिए। क्या जो मैं खा रहा हूं वह मेरे स्वास्थ्य एवं धर्म की दृष्टि से उचित है ? वह खाते समय मात्र स्वाद की तरफ ध्यान देते थे वस्तु की तरफ नहीं। इसी कारण एक बार उनके रसोइए ने उन्हें करने के लिए भोजन एक मासूम नवजात हंस बच्चे का मांस मिला दिया। राजा को वह भोजन बहुत अच्छा लगा। उन्होंने भोजन के बाद रसोइए से यह नहीं पूछा कि तुमने भोजन में ऐसी क्या नयी चीज डाली थी जिससे वह इतना स्वादिष्ट बना था अपितु उन्होंने रसोइए की बहुत प्रशंसा की और पुरस्कृत भी किया। अपनी प्रशंसा और पुरस्कार से रसोइया फूला नहीं समाया। वह अपनी प्रशंसा और पुरस्कार के लोभ में जब तक राजा को हंस के बच्चे का मांस खिलाने लग गया। इस प्रकार उसने राजा को हंस के सौ बच्चों का मांस खिला दिया। राजा ने आंखें होते हुए भी अंधे के समान बनकर हंसों के बच्चों का मांस खाया। उसी का फल उनको अगले जन्म में मिला (धृतराष्ट्र के भव में) उनके जीवित रहते हुए ही उनके सामने सौ पुत्र मरण को प्राप्त हो गये। हम सोचे एक छोटे से अविवेक ने कितना बड़ा पाप करवा दिया। यदि वह राजा देख शोध कर भोजन करता/ विशेष स्वाद के कारण की खोज कर लेते तो शायद कभी सही बात पकड़ में आ जाती। उसके इतना मांस तो खाने में नहीं आ पाता। जानकारी हो जाने पर वह प्रायश्चित करके पापों को धो सकते थे। अतः हमें देख-शोधकर विवेक पूर्वक भोजन करना चाहिए ताकि ऐसी घटना हमारे साथ नहीं घटे।