काश’
फोन नीचे रखते ही उनके मुँह से आदतन ज़ोर से निकला,
“अरे सुनती हो…बनारस से सुरेन्द्र….,”पर आगे के शब्द उनके गले मे ही अटके रह गये…’सुनने वाली तो एक माह पहले ही अचानक उनका साथछोड़ कर जा चुकी थी’। घर मे सब रिश्तेदारों के जाने के बाद बेटी रुक गई थी जो आज सुबह की फ्लाइट से मुम्बई वापसचली गई।
“पापा, मैंने दो समय का खाना बना कर फ्रिज मे रख दिया है।”,बेटी ने चलते समय कहा था। अचानक दीवार घड़ी ने चार बजे के घंटे बजाए तो उन्हें चाय की याद आ गई।रिटायर होनेके बाद ठीक चार बजे रमा चाय बना कर बराम्दे मे रख देती फिर दोनों इकठ्ठे चाय पीते थे।उसके बाद….अभी तक बेटी थी पर अब….’उन्हें खुद ही कुछ करना होगा’,सोच कर वह किचेन मे आ गये। रमा के रहते उन्हें इस तरफ आने की न ज़रूरत थी और न रुचि…..
पहली बार उन्होंने गौर से हर ओर देखा…किचेन को भी कोई कलात्मक रूप दे सकता है यह तो पहले कभी उन्होंने सोचा ही नहीं…’करीने से सजे हर डिब्बे पर लेबल लगा था..चमचमाते बर्तन इस तरह रखे थे कि आसानी से मिल जाएं…. फ्रिज मे अचार,, चटनी से लेकर सूखे मेवे तक बहुत कायदे से लगे थे। चाय भूल कर वह स्टोर मे पंहुच गये…चालीस साल पुरानी स्टील की अल्मारियाँ भी चमचमा रही थीं…और उनमें कायदे से लगे ठंडे गर्म कपड़े,कम्बल ऐसे लग रहे थे जैसे रमा को यह चिंता हो कि उसके जाने के बाद उन्हें कोई चीज़ मिलने मे परेशानी न हो।
“सारी…रमा…तुम सारे दिन इतना कुछ करती रहतीं थीं पर मैंने इस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया…. कितनी बार छोटा सा भी काम न होने पर मैने कितनी आसानी से बोला था,
“आखिर तुम दिन भर करती क्या रहती हो..।”,बाहर बराम्दे मे आते ही दीवार पर लगी पत्नी की तस्वीर से बातें करते हुए उनकी आंखें भर आईं,
“कितनी तकलीफ होती होगी तुम्हें मेरे उन शब्दों के तीर से…..काश..ये बात मैं पहले समझ पाता तो….”.पर उसके आगे उन के शब्द खो गये क्योंकि अभी तक बड़े जतन से भीतर दबाया हुआ बांध एक झटके से टूट कर बह निकला था।