एक परिचित अमेरिकन प्रोफ़ेसर से बात हो रही थी. मैंने उन्हें बता रहा था भारत में बच्चों को 19 का टेबल मुँह जवानी याद होता है. अमेरिका में टेबल पढ़ाये ही नहीं जाते. लोग छः का टेबल न सुना पायेंगे. उन्होंने कैलकुलेटर उठाया बोला टेबल याद रखने की ज़रूरत ही क्या है. जो बोलो वह एक सेकंड में बता देंगे ऐसे ही. मैंने बोला जहां कैल्यूलेटर न हो – वहाँ फ़ोन है कैलकुलेट कर लो. अरे भाई मान लो जंगल में फँस गये फ़ोन की बैटरी ख़त्म हो गई वहाँ तो दिमाग़ ही काम आएगा ना? जंगल में तुम उनीस का पहाड़ा किसे सुनाओगे? शेर को? बात एकदम जायज़ है.
पास्ट में सदैव पड़े रहने से यही नुक़सान होता है. जमाने थे हमारे पूर्वज पेड़ पर चढ़ लेते थे, हम नहीं चढ़ पाते – ज़रूरत क्या है? हमारे दादा जी नदी तैर स्कूल जाते थे – हम नहीं गये, ज़रूरत क्या है. हमारे परबाबा डॉक्टरी भी कर लेते थे किसानी भी. हम दोनों नहीं करते – ज़रूरत क्या है. पहले घर की बहू सबके खाना खाने के बाद जो बचा होता था खाती थी, नहीं बचता था नहीं खाती थी – अब ऐसा करने की ज़रूरत क्या है? पर्याप्त भोजन सबके लिए होता है. पहले बहू ननद / सास के आगे ज़मीन पर बैठती थी. अब ऐसा करने की ज़रूरत क्या है. पहले घर में गिनती की चार कुर्सियाँ होती थीं तो होता था कि सीनियर लोग बैठें. अब ऐसा करना या सोचना बचकाना है. मनुष्यों ने समय के साथ नई नई तकनीक खोजी है. आवश्यकता होती है उसे प्रयोग कर और आगे बढ़ने की.
यह जो पुराने में अटके रहने वाला राग होता है वह बहुत डेंजरस होता है. मोबाइल न हो, इंटरनेट न हों, एसी फ्रिज न हों, विद्यालय में ज़मीन पर बैठ कर शिक्षा ग्रहण की जाये – यह सब वही पुराने में लटके रहने वाले ऐक्सक्यूसेज़ हैं.
समय के साथ चलिए. पास्ट से शिक्षा अवश्य लीजिए लेकिन वह जो पास्ट में लटके रहना होता है वह रिग्रेसिव सोसाइटी का लक्षण होता है.