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महामारी का वो दौर..कोरोना की दूसरी लहर अपनी चरम सीमा पर

कभी- कभी जिंदगी में कुछ लोग हमें ऐसे मिलते हैं जिनसे जीवन में फिर कभी मिलना नहीं होता लेकिन कुछ वक्त का उनका मिलना हमारी जिंदगी में एक प्रेरणा बन जाता है और प्रेरणा बनकर वो हमारी जिंदगी का आधार बन जाते हैं ..बस ऐसी ही है आज की मेरी अपनी कहानी…

एक चेहरा जो धुंधला सा याद है..!! शायद आज सामने भी आ जाए …तो बिना पीपीटी किट और मास्क के वो धुंधला सा चेहरा भी पहचान में ना आए!!..नाम तो नही पता अगर “जिंदगी के वास्तविक योद्धा” कहूं या “जिंदगी की प्रेरणा” तो इससे बेहतरीन कुछ और नही होगा..

महामारी का वो दौर..जब कोरोना की दूसरी लहर अपनी चरम सीमा पर थी.. मुझे याद है उस दिन मुझे एचआरसिटी के लिए जाना था 104 डिग्री बुखार ने इतना शरीर तोड़ दिया था कि मैं सीधे खड़े होने की हालत में नहीं थी और अब तो सामान्य सी क्रिया सांस लेना भी ऐसा लग रहा था की शरीर बस इसके लिए ही मेहनत करके ही थक रहा था…जहां जांच के लिए जाना था वो सड़क सुनसान सी रहती थी..अप्रेल माह की उस दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में उस दिन वहां जैसे मेला सा लगा था..आधे से ज्यादा लोग गाड़ियों में बैठे अपनी पारी का दूर तक इंतजार कर रहे थे।

बाहर जांच के लिए लगी लाइन बहुत लंबी थी…जहां बेसमेंट में जांच हो रही थी वहां दस लोगो को एक साथ भेजा जा रहा था। पीपीटी किट और मास्क सुरक्षा की दृष्टि से सबके लिए अनिवार्य था .. सीटी स्कैन के लिए पीपीटी किट पहनना था इसलिए फोन पानी की बोतल.. जरुरी चीजें..सब मैनें बाहर गाड़ी में ही छोड़ दी…

जब दस लोगों में मेरा नंबर आया मेरा नंबर आखिरी था यानी नंबर दस…मेरा बुखार फिर अपने चरम पर था.. दवा का असर शायद खत्म हो गया था.. खड़े होना जैसे इस वक्त की सबसे मुश्किल जंग थी …मेरे पैर मेरा साथ छोड़ रहे हो.. आंखो के सामने अंधेरा छा रहा था.. गला सूख रहा था.. जी बहुत घबरा रहा था…मेरी आंखें बैठने के लिए जगह तलाश रही थी.. मेरी स्थिति को देखते हुए आगे खड़े व्यक्ति ने मुझसे थोड़ी दूरी बना ली…और मेरे आगे एक व्यक्ति की जगह को और खाली छोड़ दिया वो समय ही खौफभरा था वो गलत भी नही था…

अभी पहला व्यक्ति भी बाहर नहीं आया था मास्क को लगा कर सांस लेना मेरे लिए आज मुश्किल टास्क था मैं कभी मास्क उतारती तो कभी उसे वापस ऊपर चढ़ा लेती..पंक्ति कुछ सी के आकार में घूम रही थी इसलिए वहां से वो बड़ा सा दरवाजा और उसके पास खड़ी वो बुजुर्ग महिला साफ नजर आ रही थी..जो बहुत ज्यादा खांस रही थी.. खांसते हुए वो सहारे के लिए कभी उस दरवाजे पर हाथ रखती तो कभी उसी से लगती दीवार पर..

जब मुझे बैठने के लिए कुछ नजर नहीं आया तो मैं जमीन पर घुटनों के बल बैठ गई…. नजर मेरी अब भी उसी दरवाजे पर थी…. मैंने देखा उस बुजुर्ग महिला के पीछे एक शख्स खड़ा था जो उम्र में इतना छोटा एक दृश्य विचारे तो माता और पुत्र…

शायद वह बुजुर्ग महिला भयभीत थी.. अकेली थी.. घर का कोई व्यक्ति साथ नहीं था. होता भी कैसे??…अगर इस जगह पर हर किसी के साथ एक व्यक्ति होता तो यहां बहुत भीड़ हो जाती…और समय ..जगह.. परिस्थितियों के… हिसाब से ये सही भी नहीं था…

उस पीछे खड़े लड़के की आवाज आ रही थी “कुछ नहीं होगा आंटी डरने की बात नहीं है…आपने एक्स-रे कराया है ना बस वैसा ही है…मै यही हूं, आपको डर लगे तो आप अंदर कह देना बाहर मेरा बेटा बाहर खड़ा है उसे बुला दो, मैं अंदर आ जाऊंगा…पर आप बिल्कुल भी डरिएगा नही मैं यही खड़ा हूं…।”वह अपनी बातो से उस भयभीत महिला के हृदय को शांत कर रहा था जैसे ही वह पहला व्यक्ति अंदर से बाहर आया उस लड़के ने उस बुजुर्ग महिला को दरवाजे के अंदर हाथ पकडकर ऐसे छोड़ा जैसे वो सच में उस बुजुर्ग महिला का पुत्र रहा हो…

जहां सब एक दूसरे को देखकर मुंह फेर रहे थे एक दूसरे को छूना भी नही चाह रहे थे उसी जगह पर खांसती हुई उस बुजुर्ग महिला का हाथ पकड़ना बहुत बड़ी बात थी…… दिल से इस लड़के को सेल्यूट किया… जिंदगी इस पंक्ति में बहुत कुछ सीखा रही थी…खूबसूरत मन रखने वाले इंसान सच में भीड़ में अलग ही नजर आते हैं …अब उसके कदम मेरी तरफ बढ़ रहे थे नमी आंखों में लिए मैं उसकी जिंदादिली पर मुस्कुराई, नहीं जानती थी अब उसके कदम मेरी मदद के लिए बढ़ रहे हैं ..पास आकर उसने कहा,

“आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही, आप मेरी जगह पर पहले जा सकती है नंबर तीन का अपना टोकन उसने मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा,…मुझे आप अपना टोकन दे दीजिए मैं आपकी जगह पर खड़ा हो जाता हूं।”

मदद लेने के अलावा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था जब आप का अपना शरीर आपका साथ छोड़ रहा हो तो वही जिंदगी की सबसे निर्धन और असहाय अवस्था है.. और तब सहायता लेने के लिए हम मजबूर भी होते है.. आंखों की नमी.. बाहर निकल आई.. गला भर आया..आभार जताने के लिए मैनें बोलने की कोशिश की पर आवाज इतनी भारी हो गई थी कि बाहर ही नहीं आई…

वह बड़ा सा दरवाजा खुला वो बुजुर्ग महिला बाहर आई मैं टोकन बदल अंदर चली गई शायद ये जिंदगी का वो अध्याय था जिसे मेरे साथ उस पंक्ति का हर एक शख्स मौन रहकर पढ़ रहा था जब कुछ देर बाद बाहर निकली तो दर्द की अतिशयता असहनीय थी…ज्वर की तपन इतनी कि धड़कन सिर में सुन रही ऐसी स्थिति में मास्क लगाना जैसे किसी ने मुंह दबाकर सांस को अवरुद्ध कर दिया हो ….भागती हुई सीधे बाहर निकल गई चाह कर भी उस शख्स का आभार नहीं व्यक्त कर पाई…..

जिंदगी की यह जंग थोड़ी सी लंबी चली….. जब खत्म हुई तो मेरी जिंदगी की प्रेरणा बन गई…इस सफर में बहुत अनजान चेहरे मिले जिन्होने अनजाने में ही बहुत कुछ सिखाया.. कोई जिंदगी की प्रेरणा बना तो कोई जिंदगी का सबक…

आज जब कभी किसी जरूरत वश अस्पताल में जाना पड़ता है.. वहां जाकर अपना नंबर लगाना और अपने नंबर का इंतजार कर जाना… हर अस्पताल का अपना अनुशासन और नियम होता है लेकिन जब कभी वही विवशता.. दर्द …पीड़ा..कष्ट..की.. अतिशयता किसी के चेहरे पर नजर आती है जो कभी मैंने महसूस की थी तो अपने हिस्से की वो मदद जरुर करती हूं जितनी ज्यादा से ज्यादा कर सकती हूं …किसी ने कुछ नही मांगा!! पर मैं देना चाहती थी मैंने दिया मेरे हिस्से का थोड़ा सा वक्त… .मेरी कुछ पाने की मंशा नहीं थी……देकर जाना मैंनें तो बहुत कुछ पा लिया….जो बेशकिमती था ..है..सदा रहेगा…जिसे खरीदा नही जा सकता और वो है..”सुकून”..ऐसा नही है इससे पहले कभी इस मदद का विचार नही आया..पर जीवन में समय का पहिया जब उस पड़ाव से गुजरता है तब शायद ज्यादा समझ आता है हम कितनी बार रात- दिन इन अस्पतालों में आए…और..गये..पर वो दिन सिर्फ एक था जब हमें सच में किसी की मदद की जरुरत थी…और वही दिन हमें बहुत कुछ सिखाता है….और हम दिल से करना भी चाहते है..

जीवन की एक प्रेरणा जो एक पंक्ति में मिली थी …मैं उस आभार को उसी पंक्ति में फिर से समर्पित करके उस चेहरे को जरूर याद करती हूं…जो जीवन के इस सफर में हमेशा के लिए मेरी प्रेरणा बन गया….

आज जब शब्द सिंधु पर वास्तविक प्रेरणादायक घटनाओं पर लिखने का अवसर मिला तो अपने ही जीवन की वास्तविक घटना को आप सबसे सांझा किया…जीवन के इस सफर में मिली वो प्रेरणा….वो सुकून…वो आभार… सब लिखा.. जो व्यक्त करना कभी अधूरा रह गया था…नहीं जानती.. मेरे शब्द.. ये आभार…ये आवाज…कभी उस शख्स तक पहुंचेंगे…पर यह विश्वास है ये प्रेरणा दुआओं के रूप में उस शख्स तक जरूर पहुंचती होगी…..

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